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स हि विश्वाति॒ पार्थि॑वा र॒यिं दाश॑न्महित्व॒ना। व॒न्वन्नवा॑तो॒ अस्तृ॑तः ॥२०॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa hi viśvāti pārthivā rayiṁ dāśan mahitvanā | vanvann avāto astṛtaḥ ||

पद पाठ

सः। हि। विश्वा॑। अति॑। पार्थि॑वा। र॒यिम्। दाश॑त्। म॒हि॒ऽत्व॒ना। व॒न्वन्। अवा॑तः। अस्तृ॑तः ॥२०॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:16» मन्त्र:20 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:24» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:20


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (अस्तृतः) नहीं हिंसित (अवातः) पवन से वर्जित (महित्वना) महत्त्व से (वन्वन्) सेवन करता हुआ अग्नि (विश्वा) सम्पूर्ण (पार्थिवा) पृथिवी में विदित वस्तुओं और (रयिम्) धन को (अति, दाशत्) अत्यन्त देता है (सः, हि) वह सब लोगों से जानने योग्य है ॥२० ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो अग्नि बहुत सुख को देता है, उसका क्यों नहीं सेवन किया जावे ॥२० ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! योऽस्तृतोऽवातो महित्वना वन्वन्नग्निर्विश्वा पार्थिवा रयिमति दाशत्स हि सर्वैर्वेदितव्योऽस्ति ॥२० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (हि) (विश्वा) सर्वाणि (अति) (पार्थिवा) पृथिव्यां विदितानि वस्तूनि (रयिम्) धनम् (दाशत्) (महित्वना) महत्त्वेन (वन्वन्) सम्भजन् (अवातः) वायुवर्जितः (अस्तृतः) अहिंसितः ॥२० ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! योऽग्निर्बहु सुखं ददाति सः कथन्न सेव्येत ॥२० ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जो अग्नी अत्यंत सुख देतो त्याचा स्वीकार का केला जाऊ नये? ॥ २० ॥